हार्दिक अभिनंदन

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Thursday, August 29, 2013

भूख भुनाती सरकार

देश की माली हालत पर संसद के अन्दर-बाहर हो रही चर्चाओं में हर कोई इस दुर्दशा का जिम्मेवार सरकार को ठहराता नजर आता है, नजरिया चाहे जो भी रहा हो। भाजपा के वरिष्ट नेता यसवंत सिन्हा समझ नहीं पा रहे कि आखिर सरकार की अकर्मण्यता का कारण क्या है? पिछले कई सालों से सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी क्यों है? देश को गहरे संकट में धकेलने के पीछे आखिर उसकी मंशा क्या है? अदि-अदि। तो बीजू जनता दल के युवा नेता जय पांडा कमोबेश ऐसा ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए संसद में यह कहते हुए अफसोस जाहिर करते हैं कि सरकार चाहती तो कलम की नोंक से एक फैसला लिखकर स्थितियों में व्यापक बदलाव कर सकती थी पर न जाने क्यों उसने ऐसा नहीं किया! वहीं जो आर्थिक मामलों की जानकारी में आम आदमी की तरह ही तंगअक्ल हैं वे देश की दुर्दशा के लिए बुनियादी मामलों में सरकार की नाकामियों को गुनाहगार ठहराते हैं। मसलन, शरद यादव को लगता है कि किसानों को महज पानी उपलब्ध कराने पर ही सरकार ध्यान देती और उसमें सफल हो जाती तो देश के किसान हमारा और अपना पेट मजे से भरने में कामयाब हो जाते। किसानों को पानी देकर देश के चेहरे पर पानी लाया जा सकता था या है। पर अफसोस कि पिछले 66 वर्षों में वह ऐसा करने में कामयाब नहीं रही।कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि सब ऐसा जाहिर करते नजर आ रहे हैं, मानो उन्हें पता ही नहीं कि प्रधानमन्त्री और वित्त मंत्री और अंततः कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी क्यों है, या वह ऐसी नादानी कैसे कर सकती है?
कांग्रेस को नादान मानने की इस भूल या चतुराई के ही माने निकालने की जरूरत है। यह कार्य कठिन नहीं तो आसान भी नहीं।
आइये हम विपक्षियों, सहयोगियों, समीक्षकों आदि द्वारा कांग्रेस को नादान मानने के कुछ और तथ्यों का जिक्र करें। सामान्य रूप से तो यही कि राजकोषीय घाटे और डॉलर से पिटते रुपए और अंततोगत्वा सुरसे-सी मुंह फैलाती महंगाई के इस दौर में कांग्रेस आखिर क्या करेगी? खाद्य-सुरक्षा के लिए धन कहाँ से जुटाएगी? इस कोशिश में करदाताओं के ऊपर प्रतिवर्ष 1,25,000 लाख करोड़ का बोझ आएगा। और यह खर्च बढ़ता ही जाएगा। भारतीय उद्योग परिसंघ के अध्यक्ष कृष गोपालकृष्णन इसे गहरी चिंता का विषय बताते हैं–इतना बड़ा खर्च, इस समय, राजकोषीय घाटे पर निश्चित ही भयानक दुष्परिणाम पैदा करेगा।
तो क्या हम यह मानकर चलें कि देश को अनुदान (सब्सिडी) देने की नीति से अलग लीक पर डालने और मुक्त बाजार व उदारीकरण का रास्ता दिखलाने वाले मनमोहन जी को इन तथ्यों का पता नहीं?
मैं ऐसी नादानी नहीं करना चाहता। गरीबी हटाओ का नारा बुलंद करनेवाली इस पार्टी की ‘गरीबी के फायदे’ की समझ पर संदेह करना ईशनिंदा जैसा है। जब इंदिरा जी ने यह नारा बुलंद किया होगा तब उनसे ज्यादा आश्वस्त शायद ही कोई और हो कि यह कभी संभव नहीं, लेकिन उन्होंने गरीबों की उपस्थिति की ताकत समझी। उन्हें बहलाया। अब तो इनकी ताकत और बढ़ी है। इनकी संख्या बढ़ी है, इन तक पहुंचना आसन हुआ है, चुनाव सुधारों के कारण ये वोट डालने के लिए बड़ी संख्या में बूथ तक पहुँच रहे हैं। तो ये जिसे चाहें उसे सत्तानासीन कर दें। इन्हें राम-रहीम नहीं,  रोटी चाहिए। यहाँ मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘पोस्टमार्टम की रिपोर्ट’ याद आती है–
गोली खाकरएक के मुँह से निकला -’राम’।
दूसरे के मुँह से निकला-’माओ’।
लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-’आलू’।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है कि पहले दो के पेट भरे हुए थे।
लेकिन गरीब के मुंह से आलू शब्द फूट पड़े इसके लिए जरूरी है कि उनके लिए आलू सुलभ न रह जाए। मनरेगा ने चाहे-अनचाहे इन्हें थोड़ी शक्ति तो खरीद की दे ही दी है! तमाम धांधलियों के बावजूद। और इस स्कीम के लिए कांग्रेस को एक बार सत्ता इन गरीबों ने दे दी है, अब पुरानी स्कीम के लिए ये बूथ तक नहीं आने वाले। तो कांग्रेस यह जानती है, आपको पता हो न हो! उन्हें पता है कि कम में जीने की कला विकसित कर चुके गरीबों का जीना मुहाल करने के लिए महंगाई से अधिक कारगर हथियार और कुछ हो नहीं सकता। महंगाई डायन चीजों को इनकी पहुँच से इतना दूर कर देती है कि वे उन्हें चाँद सरीखा दिखने लगता है। फिर ऐसी ही स्थितियों में इन्हें 1 रुपए किलो बाजरा दे दो तो ये गरीब आपको अपनी गुलामी लिख दें, एक वोट क्या चीज है!
अब आप समझ रहे होंगे कि मरनासन्न रुपए और कमरतोड़ महंगाई कांग्रेस के लिए क्यों जरूरी हैं। क्यों यह इन स्थितियों को मूक दर्शक बनकर मुंह फैलता हुआ देखती नजर आती है। यसवंत जी कांग्रेस कोई नादानी नहीं कर रही। उसे अच्छी तरह पता है कि वह क्या कर रही है। आप नादान न बनिए। आप विपक्ष के नेता हैं, ऐसी साजिशों का पर्दाफास कीजिए। आपकी चुनौती(बहकाबे) पर कांग्रेस चुनाव नहीं करवाने वाली। सत्ता का पूरा स्वाद भोगकर ही यह सरकार चुनाव में उतरेगी। आप जैसे नेता और उनकी पार्टियाँ जाने-अनजाने इस साजिश में शरीक होकर अपनी बाजी शुरू होने से पहले ही हार चुके हैं। जाहिर है, आपको भी हमारी या कहें कि देश की चिंता नहीं है। तो ऐसे में विश्वसनीय मतदाताओं के लिए खाद्य-सुरक्षा और अपने लिए भ्रष्टाचार-सुरक्षा की कोशिशों का बुरा मानने की जरूरत नहीं, इनसे सीख लेने की जरूरत है। इसलिए मुरलीमनोहर जी! मुलायम जी! और अन्य तमाम जी! राजनीति के गुर सीखने में गुरेज मत करिए। कांग्रेस इसके लिए सबसे अच्छी कोचिंग दे सकता है।

खामियाजा भुगतता लोकतंत्र

समय इतिहास के पन्ने पर निष्ठुरतापूर्वक, ठहर-ठहरकर और बलपूर्वक गढ़ता है अपने शब्द और विडंबना हमारी चढ़ी त्योरियों की चिंता नहीं करती!
एक लड़की सामूहिक बलात्कार का शिकार होगी और आप मुम्बई को लेकर चिंतित होते हुए उसकी यंत्रणा पर दया दिखलायेंगे, उसके भविष्य की चिंता करेंगे कि अचानक लड़की आपको यह कहकर आइना दिखला देगी कि जिन्दगी यहीं खत्म नहीं होती। वह ठीक होकर जल्द से जल्द ऑफिस ज्वाइन करना चाहती है। समय ये शब्द दर्ज करेगा क्योंकि वह बहादुरों को तरजीह देता आया है। दूसरी ओर, नेता प्रतिपक्ष (लोकसभा) संसद में बलात्कार के दोषियों के लिए मृत्यु की सजा मांगेगी पर उनकी सहयोगी नेत्री एक नाबालिग के आरोपों को ही संदेह की नजर से देखती नजर आएँगी। इनके और कुछ सहयोगी एक कदम आगे निकलकर आरोपित व्यक्ति आसाराम के समर्थन में खुलेआम अजर आयेंगे। यही विडंबना है।
इस विडंबना ने मीडिया को वाद-विवाद के नाम पर मजमा लगाने की इच्छित छूट दे दी है। यहाँ ‘पढ़े-लिखे’ लोग अपने पूर्वग्रह आरोपित करेंगे। आम आदमी क्या सोच रहा है इसकी चिंता कोई नहीं करेगा। इनके लिए ऐसा करना संभव नहीं होगा क्योंकि ये उन्हें नहीं पहचानते, क्योंकि ऐसा करना उनके व्यावसायिक हितों के लिए जरूरी नहीं है। जाहिर है, ये वाद-विवाद इतिहास का हिस्सा बनने की क़ाबलियत नहीं रखते। आपकी बातें इन पन्नों पर तभी अंकित होंगी जब या तो आप राजा के दरबार में हों या प्रजा के बीच। बीच वालों की बात अनसुनी रह जाती है।
अब ऐसे में हम कैसे जाने की आम आदमी आज नेताओं के पालों के बारे में क्या सोच रहा है? चाहे वह खाद्य-सुरक्षा हो या बलात्कार पर न्याय के स्वरूप का मुद्दा और उसपर नेताओं का खेमा। विडंबना यह है कि जब हम ग्लोबल होते जा रहे हैं हमें पड़ोसियों की खबर नहीं लगती। बगल वाली फ्लैट में महीनों तक भूखी रहकर एक महिला मर जाती है और हमें खबर नहीं लगती।
यह व्याकुल कर देनेवाली स्थिति है! आम आदमी क्या सोच रहा है यह हमें पता ही नहीं! इसी के साथ यह भी तय है की हमें यह भी नहीं पता कि वह कब कैसे सोचता है। क्या यही वजह है की वह तथाकथित राजनीतिक पंडितों को चौंकाता है। और चौंकाए जाने की मजबूरी में ये इन्हें बुद्धिमान बताते हैं जबकि प्रायः दैनंदिन जीवन में इन्हें मूर्ख मानते हैं? क्या यही वजह हैं कि लाखों करोड़ों के घोटाले करनेवाली सरकार खाद्य-सुरक्षा का ‘ड्रामा’ करती है? आपकी जेब में कुछ को खिलाने के पैसे न हों और आप करोड़ों को सपने दिखाएँ तो समय ठहर कर देखेगा और तब लिखेगा। विडंबना आपको ऐन मौके पर अस्पताल पहुंचाएगी। हम उनके स्वस्थ्य की कामना करेंगे पर खामियाजा देश का लोकतंत्र भोगेगा।
इन पंक्तियों को लिखते समय ठीक इसी वक़्त मुझे वर्ष 1996 के मध्य अटल बिहारी वाजपेयी की एक गूंजती पंक्ति याद आ रही है जो उन्होंने तमाम पार्टियों को आगाह करते हुए कहा था जब वे साम्प्रदायिकता के नाम पर भाजपा को अस्पृश्य मानकर उन्हें संसद में पदच्युत करने के लिए वोट करने वाले थे। उन्होंने प्रायः कहा था कि तमाम पार्टियों की ऐसी एकांगी सोच का खामियाजा देश का लोकतंत्र भुगतेगा।
और सच पूछें तो आज उनकी बातों का सही माने समझ में आ रहा है। माने तब समझ में नहीं आया जब बाटला हाउस में आतंकवादियों की गोली से शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत के समय सोनिया जी और दिग्विजय जी का मन इस एनकाउंटर में मारे गए इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी आतिफ अमिन और मोहमद साजिद के लिए व्याकुल हुआ था। माने तब भी समझ में नहीं आया जब दिग्विजय जी ने ओसामा बिन लादेन और हाफिज सईद को श्रीमान और जी के उपसर्ग और प्रत्यय प्रदान किये। माने तब भी समझ में नहीं आया जब आतंकवाद को भगवा रंग प्रदान किया गया। जबकि खून के सुर्ख रंग को देखने में बरता जा रहा पूर्वग्रह और उसके दूरगामी परिणामों पर ध्यान जाना चाहिए था। लखनऊ में जब शिया-सुन्नी लड़ रहे थे, सड़कों पर खून बह रहा था तब राज्य सरकार चुप रही पर दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित करने के लिए सांप्रदायिक तनाव की आशंका को ही महत्वपूर्ण माना। इस वक़्त भी मेरे सामने वाजपेयी जी के शब्दों का गहरा निहितार्थ खुलकर प्रकट नहीं हुआ था।
लेकिन अब जब आसाराम के समर्थन में भाजपा खुलकर सामने आ गयी है, मुझे ‘लोकतंत्र का खामियाजा’ वाक्यांश का अर्थ खुलकर समझ में आ रहा है। खून के रंग को वोट के चश्मे से देखने का असर अब बरपा है! इस चश्मे की बदौलत यदि आप आतंकवादियों के मारे जाने पर रो सकते हैं तो उसी खास तरह के चश्मे से आसाराम को क्यों नहीं देखा जा सकता है। यह चश्मा अब बहुतायत में उपलब्ध है। हर कोई ले सकता है, पहन सकता है। वह जमाना गया कि टेलीफ़ोन का चोगा खास घरों की शोभा बढ़ाता था। अब तो जमाना मोबाइल है। अब यह चश्मा बड़ी संख्या में लोग पहने हुए हैं। इन चश्मों को पहने एक खास पाले के लोग सोच रहे हैं कि आखिर 80 फीसदी लोगों का राजनीतिक भविष्य 20 फीसदी लोगों की एकजुटता क्यों तय करे? इनकी संख्या यदि बढती चली गयी तो हम पता नहीं कौन सी स्थिति देश में देखने वाले हैं! क्या हमारे पास संभलने का वक़्त बचा है? काश हो और नेता इसे जरूरी समझें।
कहते हैं कि क़ानून अंधा होता है, उसे होना भी चाहिए, क्योकि यदि वह खून का रंग देखने का वर्त्तमान नेताओं-पार्टियों का चलन चला दे तो बड़ी आफत हो जाएगी। शुक्र है ऐसा नहीं है पर जहाँ जितना भी है यह चलन, लोकतंत्र को मर्माहत करने को काफी है।

तो समझिये चुनाव होने ही वाला है

स्कूली दिनों में भारत के संविधान की भूमिका के कुछ शब्द सायास याद रखने होते थे जो भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक गणराज्य निश्चित करता था। वह लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, अभिव्यक्ति, विश्वास आदि की स्वतंत्रता की दुहाई भी देता था। अब उन शब्दों को दोबारा पढ़े अरसा गुजर गया है। इन शब्दों के संविधान में अंकन को तो 63 साल बीत गए। इन शब्दों में निहित भावना देश में हर तरफ और हर रोज बेपर्दा होती रहती है। कौन इसे याद करता है लेकिन…धन्य हैं देश के नेता, खास कर गद्दीनसीन कि उन्हें चुनाव के निकट आते ही ये शब्द खूब याद आने लगते हैं।
इससे बड़ी सुभीता हो जाती है। चुनाव आयोग को बताना भी नहीं पड़ता और हम जान जाते हैं कि चुनाव का महापर्व (गोया हमारी तो जान सांसत में आ जाती है) बेहद करीब आ गया है।
अब संप्रभुता को ही लीजिये–अभी तक तो यही हो रहा था कि 9/11 के बाद किसी भी तरह की बातचीत से इनकार के बाद पाकिस्तान से बातचीत की पहल हमही करते थे। हमारी धरती पर घुस कर हमारे जवानों के सिर काटकर ले जानेवाले, गोलियों से छलनी कर देने वाले पाकिस्तानी फ़ौज को हमारे रक्षामंत्री संसद में दुश्मनों को दूध का धुला साबित करते नजर आ रहे थे। चीन हमें आँख दिखा रहा था तो हम खिखियाते नजर आ रहे थे। वह हमें धमकाता था तो हम उनकी प्रसंशा करते थे। मतलब– चुनाव अभी दूर था। आप कहेंगे–लेकिन चुनाव तो ज्यादा से ज्यादा अपने नियत समय पर होंगे ही? हाँ, वो तो है! तभी तो विपक्षियों में देशप्रेम का स्वर फूट पड़ा है। नहीं तो क्यों है कि चीन हमारे बंकर ध्वस्त करके चला जाता है और ये चुप रहते हैं पर अभी एक निगरानी कैमरा तोड़ ले जाने वाला चीन अचानक देश के लिए खतरा बन गया है। लेकिन मैं जो कह रहा हूँ वह ये की जब लद्दाख में हर्कुलस सुपर विमान अचानक उतारा जाये तो समझो चुनाव सचमुच निकट है। इसे हमारी सरकार का इशारा माना जाये। बहरहाल संप्रभुता के मसले पर ऐसे अन्य संकेतों को पहचानने की पहेली अब आप सुलझाएं।
अब लीजिये समाजवाद–इसे लाने की खातिर पूर्ण-अपूर्ण-सम्पूर्ण कितने ही प्रयास हुए जिसे क्रांति तक का नाम दिया गया। इसके छिटपुट प्रयासों की चेष्टा (मुकम्मल कोशिश नहीं) चलती ही रहती है। चूँकि अब महंगाई डायन और भ्रष्टाचार राक्षस इस समाजवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है और विपक्षियों के लिए उसका विरोध करना ज्यादा सुविधाजनक है तो उसके लिए भी समाजवाद कोई मुद्दा नहीं। इस नाम से बनी-जुडी पार्टियों तक के लिए इसके माने बदल गए हैं। ऐसे में यदि सरकार एक दिन अकबका कर देश के करोड़ों भूखों-नंगों-शोषितों के लिए द्रवित नजर आने लगे तो समझिये चुनाव बेहद निकट है।
और अब धर्मनिरपेक्षता–यह किसे नहीं पता कि दूसरे धर्म के लोग भी हमारे साथ ही रहते हैं और हम उनके साथ। पर जब लाल किले से प्रधानमंत्री हम नासमझों को सद्भाव का पाठ पढ़ाने लगें, हमें धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता-छद्म-धर्मनिरपेक्षता के अर्थ बताने की फिर से कोशिशें होने लगें,अल्पसंख्यक समुदाय के बाहुल्य से घिरे बहुसंख्यक और इसकी उलट स्थितियों में रह रहे ‘अल्पसंख्यकों’ के चेहरों पर भय मिश्रित चुप्पी और खिसियाहट दिखने लगे, जब साधु-संतों की भीड़ को नेतृत्व देने के लिए नेतागण आगे आने लगें तो समझिए चुनाव आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
प्रजातंत्र की बाबत मैं ऐसा नहीं कह पाता जैसा कि ऊपर कहा। इसकी याद हमें हमेशा दिलाई जाती है। इसे किसी षड़यंत्र की तरह हमपर थोपा जाता है। सत्तापक्ष अपनी ढिठाई और निरंकुशता को इसकी आड़ में छुपाता है। वरना प्रजातंत्र के इन रक्षकों की नाकामियों से आज़िज आकर जब सर्वोच्च न्यायालय कुछ बोलता है तो इनकी सत्ता खतरे में क्यों पर जाती है? भारतीय राजनीति में प्रजातंत्र ने जितने पाप अपने सिर पर ढोए हैं उतने तो निरंकुश कई तानाशाहों के शासन ने भी नहीं ढोए हों। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र (जनसँख्या के लिहाज से, वर्ना जनसँख्या कौन सा कभी वरदान साबित होता है) में हर वक़्त नेताओं को यह बताना पड़े की यहाँ लोकतंत्र है, मुझे चिंता का विषय लगता है। इसलिए नेताओं द्वारा इनके प्रयोग से आप चुनाव को लेकर कोई आशय न निकालें तो अच्छा लेकिन यदि किसी कद्दावर नेता विशेष को छोटा बताने की प्रवृति में जुटे नेता अचानक उसे अलोकतांत्रिक, निरंकुश प्रवृत्ति वाला बताने लगे तो उसके आशय निकलने की जरूरत है…

भारत के निर्माण पर आपका नहीं हक!

भारत के निर्माण पर जब कांग्रेस ने हक जता दिया है तब कोई और देश के निर्माण की जिम्मेदारी अपनी न समझे! आजादी के अभी सात दशक ही तो पूरे होने वाले हैं। एक आदमी जो आजाद पैदा हुआ, वह तो अभी 70 साल का भी नहीं हुआ है। वह अकेला आदमी कितना बदलेगा कई सौ साल से लुटे-पिटे देश को! अभी हमें मीलों चलना है। हमें राह मत दिखाओ, पीछे-पीछे आओ! इसे मेरा हक मानो!
तुम देश का मध्यवर्ग हो– तुम पिटते रुपये, चढ़ती महंगाई, गर्दन पर नौकरी से छंटनी की रखी धारदार छुरी की चिंता करो, कहाँ इस पचड़े में पड़ते हो? यह पूछना तुम्हारा काम नहीं है कि करोड़ों गरीबों की खाद्य-सुरक्षा का स्वप्न बीती रात को ही हमें क्यों आया या हम ऐसा करने के लिए धन कहाँ से लाएंगे! तुम देश के किसान हो, उपजाओ। जो बिक जाये बेच लो, खा सको खा लो। बाकी हमारे पास सड़ने के लिए छोड़ दो।
पर सवाल इस तेवर मात्र का नहीं है। कांग्रेस खाद्य-सुरक्षा के मसले पर जैसा रुख अपना रही है उससे लगता है वह भाजपा सहित अन्य कई पार्टियों को कह रही है–’तुम विपक्षी हो, तुम हमारा समर्थन क्यों कर रहे हो? भारत के निर्माण पर तो हक है मेरा!’
बहरहाल यह पार्टियों की समस्या है। हम तो सिर्फ इतना जानना चाहते हैं कि मुफ्त अनाज के लिए धन कहाँ से आएगा? वह आ भी गया तो जिन्हें वह सामग्री मिलेगी वे अब भूखे नहीं सोयेंगे तो फिर अगली सुबह रोजगार के लिए कहाँ जायेंगे? यदि उन्हें रोजगार नहीं मिला तो वे क्या-क्या करेंगे? चलिए हम मान लें कि यह उनकी समस्या होगी तो हमें हमारी समस्याओं से निजात दिलाने का क्या उपाय करेंगे?
एक बार किसान प्याज ढंग से उपजा ले या वर्षा रानी की कृपा से उपज जाए तो उसका मूल्य इतना गिर जाता है, मांग-आपूर्ति का ग्राफ ऐसा बनता है की किसान जार-जार रोता है। अगले साल वह कम उपजाता है और बिचौलिए प्याज को ’80′ रुपए किलो बेच हम सबको रुलाते हैं। विडंबना यह कि किसान तब भी फायदे का हकदार नहीं बनता। अब जब सरकार गरीबों के लिए अनाज खरीदेगी तो किसान जाहिर तौर पर चावल और गेहूं उपजाने पर ही अधिक ध्यान देगा। अब हम दलहन की मांग भर आपूर्ति करने में असफल होंगे। सब्जियों का यही हाल होगा। आयत की राह जायेंगे तो कीमतें आसमान छुएंगी। पहुँच से बाहर! अब इसके लिए सरकार क्या करने जा रही है?
इतना ही नहीं। कई राज्यों में जहाँ ऐसी योजना अमल में है और केंद्र की योजना से अधिक अनाज सस्ते में दे रही है और जो पर्याप्त नहीं है वहीँ उससे भी कम अनाज देने की योजना कहीं एक साजिश तो नहीं? कैसे? आज भाजपा शासित जिन राज्यों में 35 किलो अनाज मिल रहा है उन्हें अब सब की तरह 25 किलो मिलेगा। चूँकि यह लाभ उन्हें राज्य सरकारें दे रही थी तो वे उन्हें वोट देते हैं या देने की सोच रहे हैं। अब उनकी नाराजगी भी राज्य सरकार ही झेलेगी। केंद्र की खाद्य-सुरक्षा योजना से जो नए लाभार्थी जुड़ेंगे वे इतने में ही खुद को 2014 चुनाव तक तो तृप्त पाएंगे ही! यानी उनका थोक वोट! अलोकप्रियता के गर्त में डूबती पार्टी को इससे अच्छा सहारा और क्या होगा। इस खाद्य-सुरक्षा की लाठी से सांप भी मर जयेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी!
यदि इस योजना में कोई साजिश नहीं, और यह सोनिया जी की रातोरात उमड़ आई गहरी ममता का सच्चा प्रसाद है तो कोई बताएगा कि आज तक भूखों मरता गरीब मुक्त बाजार से बचे अनाज और नमक-मिर्च की महँगी खरीद करने में कैसे सक्षम होगा? क्या महंगाई पर रोकथाम के प्रति कोई ठोस योजना आपके पास है?

Sunday, August 2, 2009

ऒ प्रेमहि छल...!

प्रातः केर स्वर्णिम आभा मे
पटिया पर सरिया कऽ राखल
तानपूरा, हारमॊनियम आ तबला-डुग्गीक मध्य
अहाँक कॊरा मे फहराइत
कापीक पन्ना
आ एमहर-ओमहर छिरिआयल
हमर किछु शब्द
अहाँक आँखि मे सेतु
बनयबाक प्रयास कर रहल छल
आ अहाँ खिड़की सँऽ बाहर
विद्यापीठ दिस देख रहल छलहुँ
कि हम आयल रही ....,

एकटा पिआसल दुपहरियाक एकांत मे
वाद्ययंत्रक मिश्रित तान मे
हमर शब्द सभ केँ बहुत सेहंता सँऽ
अपन ठॊर पर अहाँ रखनहि छलहुँ
कि हम आयल रही ....,

पुनः
एकटा श्यामवर्णी साँझ मे
दीप केर ज्यॊति किछु कहि उठल छल
कि अहाँक ठॊर पर तखने
हम अंकित कऽ देने रही
वाद्ययंत्र सँऽ निकसल मिश्रित संगीत
आ देखलहुँ
अहाँक आरक्त नेत्र मे
आ अहाँक गाल पर नचैत
अप्रतिम धुन
कि हम आयल रही !..,..

ऒ प्रेमहि छल...!

हम जी रहल छी

धानक दूध भारी आ ठॊस ह्वैत रहलै
आ शीत संग हौले-हौले बहैत रहलै
समय आ व्याकुल मॊन
आ आँखिक सॊझाँ
रिक्त हॊइत रहलै खेत
आ भरैत रहलै खरिहान
गॊहूम सँऽ
आ पुनः जलमग्न हॊइत रहलै
अहाँक अत्यंत मनॊहरताक परिपार्श्व मे
ई आँखि
गेंदा, तीरा, सिंगरहार आ थलकमल
लुटाइत देखैत रहलै
खसैत रहलै कओखन अहाँक फूलडाली सँऽ तऽ
कओखन अहाँक आँचर सँऽ
हमर आँखि
छॊट-पैघ यात्रा करैत रहलै
अहाँक अत्यंत मद्धिम मनॊहरताक परिपार्श्व मे
अनुखन नव पाँखि लगा उड़ैत रहलै
ई आँखि
छाती मे नेने एकटा गाम, एकटा धार, एकटा माय
थान तर केर जाड़क भॊर
बदलल आकास मे
दृश्य बदलैत रहलै
मुदा अहाँक अत्यंत मद्धिम मनॊहरताक परिपार्श्व मे
लसैक कऽ ठमकल छै
छॊट-छॊट कालक एकटा
कॊंढफट्टू दृश्यालॊक....,
हम जी रहल छी...!?...

तॊरा मे हम

तॊँ कत्तऽ छैँ बहिन !
कत्त रहबेँ काल्हि साँझ
तखन जखन
सुरुज घर मे घुसि
भीतर सँऽ लगाबक ओरियान मे रहतै
अपन दरबज्जा ?
हम तॊरा छूबि कऽ
देखऽ चाहबौ जे कतेक रास बचल छी
एखनॊ हम तॊरा मे
जखन कनेके काल बाद
हॊमऽ वला हेतै राति घनघॊर !....