समय इतिहास के पन्ने पर निष्ठुरतापूर्वक, ठहर-ठहरकर और बलपूर्वक गढ़ता है
अपने शब्द और विडंबना हमारी चढ़ी त्योरियों की चिंता नहीं करती!
एक लड़की सामूहिक बलात्कार का शिकार होगी और आप मुम्बई को लेकर चिंतित होते हुए उसकी यंत्रणा पर दया दिखलायेंगे, उसके भविष्य की चिंता करेंगे कि अचानक लड़की आपको यह कहकर आइना दिखला देगी कि जिन्दगी यहीं खत्म नहीं होती। वह ठीक होकर जल्द से जल्द ऑफिस ज्वाइन करना चाहती है। समय ये शब्द दर्ज करेगा क्योंकि वह बहादुरों को तरजीह देता आया है। दूसरी ओर, नेता प्रतिपक्ष (लोकसभा) संसद में बलात्कार के दोषियों के लिए मृत्यु की सजा मांगेगी पर उनकी सहयोगी नेत्री एक नाबालिग के आरोपों को ही संदेह की नजर से देखती नजर आएँगी। इनके और कुछ सहयोगी एक कदम आगे निकलकर आरोपित व्यक्ति आसाराम के समर्थन में खुलेआम अजर आयेंगे। यही विडंबना है।
इस विडंबना ने मीडिया को वाद-विवाद के नाम पर मजमा लगाने की इच्छित छूट दे दी है। यहाँ ‘पढ़े-लिखे’ लोग अपने पूर्वग्रह आरोपित करेंगे। आम आदमी क्या सोच रहा है इसकी चिंता कोई नहीं करेगा। इनके लिए ऐसा करना संभव नहीं होगा क्योंकि ये उन्हें नहीं पहचानते, क्योंकि ऐसा करना उनके व्यावसायिक हितों के लिए जरूरी नहीं है। जाहिर है, ये वाद-विवाद इतिहास का हिस्सा बनने की क़ाबलियत नहीं रखते। आपकी बातें इन पन्नों पर तभी अंकित होंगी जब या तो आप राजा के दरबार में हों या प्रजा के बीच। बीच वालों की बात अनसुनी रह जाती है।
अब ऐसे में हम कैसे जाने की आम आदमी आज नेताओं के पालों के बारे में क्या सोच रहा है? चाहे वह खाद्य-सुरक्षा हो या बलात्कार पर न्याय के स्वरूप का मुद्दा और उसपर नेताओं का खेमा। विडंबना यह है कि जब हम ग्लोबल होते जा रहे हैं हमें पड़ोसियों की खबर नहीं लगती। बगल वाली फ्लैट में महीनों तक भूखी रहकर एक महिला मर जाती है और हमें खबर नहीं लगती।
यह व्याकुल कर देनेवाली स्थिति है! आम आदमी क्या सोच रहा है यह हमें पता ही नहीं! इसी के साथ यह भी तय है की हमें यह भी नहीं पता कि वह कब कैसे सोचता है। क्या यही वजह है की वह तथाकथित राजनीतिक पंडितों को चौंकाता है। और चौंकाए जाने की मजबूरी में ये इन्हें बुद्धिमान बताते हैं जबकि प्रायः दैनंदिन जीवन में इन्हें मूर्ख मानते हैं? क्या यही वजह हैं कि लाखों करोड़ों के घोटाले करनेवाली सरकार खाद्य-सुरक्षा का ‘ड्रामा’ करती है? आपकी जेब में कुछ को खिलाने के पैसे न हों और आप करोड़ों को सपने दिखाएँ तो समय ठहर कर देखेगा और तब लिखेगा। विडंबना आपको ऐन मौके पर अस्पताल पहुंचाएगी। हम उनके स्वस्थ्य की कामना करेंगे पर खामियाजा देश का लोकतंत्र भोगेगा।
इन पंक्तियों को लिखते समय ठीक इसी वक़्त मुझे वर्ष 1996 के मध्य अटल बिहारी वाजपेयी की एक गूंजती पंक्ति याद आ रही है जो उन्होंने तमाम पार्टियों को आगाह करते हुए कहा था जब वे साम्प्रदायिकता के नाम पर भाजपा को अस्पृश्य मानकर उन्हें संसद में पदच्युत करने के लिए वोट करने वाले थे। उन्होंने प्रायः कहा था कि तमाम पार्टियों की ऐसी एकांगी सोच का खामियाजा देश का लोकतंत्र भुगतेगा।
और सच पूछें तो आज उनकी बातों का सही माने समझ में आ रहा है। माने तब समझ में नहीं आया जब बाटला हाउस में आतंकवादियों की गोली से शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत के समय सोनिया जी और दिग्विजय जी का मन इस एनकाउंटर में मारे गए इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी आतिफ अमिन और मोहमद साजिद के लिए व्याकुल हुआ था। माने तब भी समझ में नहीं आया जब दिग्विजय जी ने ओसामा बिन लादेन और हाफिज सईद को श्रीमान और जी के उपसर्ग और प्रत्यय प्रदान किये। माने तब भी समझ में नहीं आया जब आतंकवाद को भगवा रंग प्रदान किया गया। जबकि खून के सुर्ख रंग को देखने में बरता जा रहा पूर्वग्रह और उसके दूरगामी परिणामों पर ध्यान जाना चाहिए था। लखनऊ में जब शिया-सुन्नी लड़ रहे थे, सड़कों पर खून बह रहा था तब राज्य सरकार चुप रही पर दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित करने के लिए सांप्रदायिक तनाव की आशंका को ही महत्वपूर्ण माना। इस वक़्त भी मेरे सामने वाजपेयी जी के शब्दों का गहरा निहितार्थ खुलकर प्रकट नहीं हुआ था।
लेकिन अब जब आसाराम के समर्थन में भाजपा खुलकर सामने आ गयी है, मुझे ‘लोकतंत्र का खामियाजा’ वाक्यांश का अर्थ खुलकर समझ में आ रहा है। खून के रंग को वोट के चश्मे से देखने का असर अब बरपा है! इस चश्मे की बदौलत यदि आप आतंकवादियों के मारे जाने पर रो सकते हैं तो उसी खास तरह के चश्मे से आसाराम को क्यों नहीं देखा जा सकता है। यह चश्मा अब बहुतायत में उपलब्ध है। हर कोई ले सकता है, पहन सकता है। वह जमाना गया कि टेलीफ़ोन का चोगा खास घरों की शोभा बढ़ाता था। अब तो जमाना मोबाइल है। अब यह चश्मा बड़ी संख्या में लोग पहने हुए हैं। इन चश्मों को पहने एक खास पाले के लोग सोच रहे हैं कि आखिर 80 फीसदी लोगों का राजनीतिक भविष्य 20 फीसदी लोगों की एकजुटता क्यों तय करे? इनकी संख्या यदि बढती चली गयी तो हम पता नहीं कौन सी स्थिति देश में देखने वाले हैं! क्या हमारे पास संभलने का वक़्त बचा है? काश हो और नेता इसे जरूरी समझें।
कहते हैं कि क़ानून अंधा होता है, उसे होना भी चाहिए, क्योकि यदि वह खून का रंग देखने का वर्त्तमान नेताओं-पार्टियों का चलन चला दे तो बड़ी आफत हो जाएगी। शुक्र है ऐसा नहीं है पर जहाँ जितना भी है यह चलन, लोकतंत्र को मर्माहत करने को काफी है।
एक लड़की सामूहिक बलात्कार का शिकार होगी और आप मुम्बई को लेकर चिंतित होते हुए उसकी यंत्रणा पर दया दिखलायेंगे, उसके भविष्य की चिंता करेंगे कि अचानक लड़की आपको यह कहकर आइना दिखला देगी कि जिन्दगी यहीं खत्म नहीं होती। वह ठीक होकर जल्द से जल्द ऑफिस ज्वाइन करना चाहती है। समय ये शब्द दर्ज करेगा क्योंकि वह बहादुरों को तरजीह देता आया है। दूसरी ओर, नेता प्रतिपक्ष (लोकसभा) संसद में बलात्कार के दोषियों के लिए मृत्यु की सजा मांगेगी पर उनकी सहयोगी नेत्री एक नाबालिग के आरोपों को ही संदेह की नजर से देखती नजर आएँगी। इनके और कुछ सहयोगी एक कदम आगे निकलकर आरोपित व्यक्ति आसाराम के समर्थन में खुलेआम अजर आयेंगे। यही विडंबना है।
इस विडंबना ने मीडिया को वाद-विवाद के नाम पर मजमा लगाने की इच्छित छूट दे दी है। यहाँ ‘पढ़े-लिखे’ लोग अपने पूर्वग्रह आरोपित करेंगे। आम आदमी क्या सोच रहा है इसकी चिंता कोई नहीं करेगा। इनके लिए ऐसा करना संभव नहीं होगा क्योंकि ये उन्हें नहीं पहचानते, क्योंकि ऐसा करना उनके व्यावसायिक हितों के लिए जरूरी नहीं है। जाहिर है, ये वाद-विवाद इतिहास का हिस्सा बनने की क़ाबलियत नहीं रखते। आपकी बातें इन पन्नों पर तभी अंकित होंगी जब या तो आप राजा के दरबार में हों या प्रजा के बीच। बीच वालों की बात अनसुनी रह जाती है।
अब ऐसे में हम कैसे जाने की आम आदमी आज नेताओं के पालों के बारे में क्या सोच रहा है? चाहे वह खाद्य-सुरक्षा हो या बलात्कार पर न्याय के स्वरूप का मुद्दा और उसपर नेताओं का खेमा। विडंबना यह है कि जब हम ग्लोबल होते जा रहे हैं हमें पड़ोसियों की खबर नहीं लगती। बगल वाली फ्लैट में महीनों तक भूखी रहकर एक महिला मर जाती है और हमें खबर नहीं लगती।
यह व्याकुल कर देनेवाली स्थिति है! आम आदमी क्या सोच रहा है यह हमें पता ही नहीं! इसी के साथ यह भी तय है की हमें यह भी नहीं पता कि वह कब कैसे सोचता है। क्या यही वजह है की वह तथाकथित राजनीतिक पंडितों को चौंकाता है। और चौंकाए जाने की मजबूरी में ये इन्हें बुद्धिमान बताते हैं जबकि प्रायः दैनंदिन जीवन में इन्हें मूर्ख मानते हैं? क्या यही वजह हैं कि लाखों करोड़ों के घोटाले करनेवाली सरकार खाद्य-सुरक्षा का ‘ड्रामा’ करती है? आपकी जेब में कुछ को खिलाने के पैसे न हों और आप करोड़ों को सपने दिखाएँ तो समय ठहर कर देखेगा और तब लिखेगा। विडंबना आपको ऐन मौके पर अस्पताल पहुंचाएगी। हम उनके स्वस्थ्य की कामना करेंगे पर खामियाजा देश का लोकतंत्र भोगेगा।
इन पंक्तियों को लिखते समय ठीक इसी वक़्त मुझे वर्ष 1996 के मध्य अटल बिहारी वाजपेयी की एक गूंजती पंक्ति याद आ रही है जो उन्होंने तमाम पार्टियों को आगाह करते हुए कहा था जब वे साम्प्रदायिकता के नाम पर भाजपा को अस्पृश्य मानकर उन्हें संसद में पदच्युत करने के लिए वोट करने वाले थे। उन्होंने प्रायः कहा था कि तमाम पार्टियों की ऐसी एकांगी सोच का खामियाजा देश का लोकतंत्र भुगतेगा।
और सच पूछें तो आज उनकी बातों का सही माने समझ में आ रहा है। माने तब समझ में नहीं आया जब बाटला हाउस में आतंकवादियों की गोली से शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत के समय सोनिया जी और दिग्विजय जी का मन इस एनकाउंटर में मारे गए इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी आतिफ अमिन और मोहमद साजिद के लिए व्याकुल हुआ था। माने तब भी समझ में नहीं आया जब दिग्विजय जी ने ओसामा बिन लादेन और हाफिज सईद को श्रीमान और जी के उपसर्ग और प्रत्यय प्रदान किये। माने तब भी समझ में नहीं आया जब आतंकवाद को भगवा रंग प्रदान किया गया। जबकि खून के सुर्ख रंग को देखने में बरता जा रहा पूर्वग्रह और उसके दूरगामी परिणामों पर ध्यान जाना चाहिए था। लखनऊ में जब शिया-सुन्नी लड़ रहे थे, सड़कों पर खून बह रहा था तब राज्य सरकार चुप रही पर दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित करने के लिए सांप्रदायिक तनाव की आशंका को ही महत्वपूर्ण माना। इस वक़्त भी मेरे सामने वाजपेयी जी के शब्दों का गहरा निहितार्थ खुलकर प्रकट नहीं हुआ था।
लेकिन अब जब आसाराम के समर्थन में भाजपा खुलकर सामने आ गयी है, मुझे ‘लोकतंत्र का खामियाजा’ वाक्यांश का अर्थ खुलकर समझ में आ रहा है। खून के रंग को वोट के चश्मे से देखने का असर अब बरपा है! इस चश्मे की बदौलत यदि आप आतंकवादियों के मारे जाने पर रो सकते हैं तो उसी खास तरह के चश्मे से आसाराम को क्यों नहीं देखा जा सकता है। यह चश्मा अब बहुतायत में उपलब्ध है। हर कोई ले सकता है, पहन सकता है। वह जमाना गया कि टेलीफ़ोन का चोगा खास घरों की शोभा बढ़ाता था। अब तो जमाना मोबाइल है। अब यह चश्मा बड़ी संख्या में लोग पहने हुए हैं। इन चश्मों को पहने एक खास पाले के लोग सोच रहे हैं कि आखिर 80 फीसदी लोगों का राजनीतिक भविष्य 20 फीसदी लोगों की एकजुटता क्यों तय करे? इनकी संख्या यदि बढती चली गयी तो हम पता नहीं कौन सी स्थिति देश में देखने वाले हैं! क्या हमारे पास संभलने का वक़्त बचा है? काश हो और नेता इसे जरूरी समझें।
कहते हैं कि क़ानून अंधा होता है, उसे होना भी चाहिए, क्योकि यदि वह खून का रंग देखने का वर्त्तमान नेताओं-पार्टियों का चलन चला दे तो बड़ी आफत हो जाएगी। शुक्र है ऐसा नहीं है पर जहाँ जितना भी है यह चलन, लोकतंत्र को मर्माहत करने को काफी है।
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