हार्दिक अभिनंदन

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Thursday, August 29, 2013

तो समझिये चुनाव होने ही वाला है

स्कूली दिनों में भारत के संविधान की भूमिका के कुछ शब्द सायास याद रखने होते थे जो भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक गणराज्य निश्चित करता था। वह लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, अभिव्यक्ति, विश्वास आदि की स्वतंत्रता की दुहाई भी देता था। अब उन शब्दों को दोबारा पढ़े अरसा गुजर गया है। इन शब्दों के संविधान में अंकन को तो 63 साल बीत गए। इन शब्दों में निहित भावना देश में हर तरफ और हर रोज बेपर्दा होती रहती है। कौन इसे याद करता है लेकिन…धन्य हैं देश के नेता, खास कर गद्दीनसीन कि उन्हें चुनाव के निकट आते ही ये शब्द खूब याद आने लगते हैं।
इससे बड़ी सुभीता हो जाती है। चुनाव आयोग को बताना भी नहीं पड़ता और हम जान जाते हैं कि चुनाव का महापर्व (गोया हमारी तो जान सांसत में आ जाती है) बेहद करीब आ गया है।
अब संप्रभुता को ही लीजिये–अभी तक तो यही हो रहा था कि 9/11 के बाद किसी भी तरह की बातचीत से इनकार के बाद पाकिस्तान से बातचीत की पहल हमही करते थे। हमारी धरती पर घुस कर हमारे जवानों के सिर काटकर ले जानेवाले, गोलियों से छलनी कर देने वाले पाकिस्तानी फ़ौज को हमारे रक्षामंत्री संसद में दुश्मनों को दूध का धुला साबित करते नजर आ रहे थे। चीन हमें आँख दिखा रहा था तो हम खिखियाते नजर आ रहे थे। वह हमें धमकाता था तो हम उनकी प्रसंशा करते थे। मतलब– चुनाव अभी दूर था। आप कहेंगे–लेकिन चुनाव तो ज्यादा से ज्यादा अपने नियत समय पर होंगे ही? हाँ, वो तो है! तभी तो विपक्षियों में देशप्रेम का स्वर फूट पड़ा है। नहीं तो क्यों है कि चीन हमारे बंकर ध्वस्त करके चला जाता है और ये चुप रहते हैं पर अभी एक निगरानी कैमरा तोड़ ले जाने वाला चीन अचानक देश के लिए खतरा बन गया है। लेकिन मैं जो कह रहा हूँ वह ये की जब लद्दाख में हर्कुलस सुपर विमान अचानक उतारा जाये तो समझो चुनाव सचमुच निकट है। इसे हमारी सरकार का इशारा माना जाये। बहरहाल संप्रभुता के मसले पर ऐसे अन्य संकेतों को पहचानने की पहेली अब आप सुलझाएं।
अब लीजिये समाजवाद–इसे लाने की खातिर पूर्ण-अपूर्ण-सम्पूर्ण कितने ही प्रयास हुए जिसे क्रांति तक का नाम दिया गया। इसके छिटपुट प्रयासों की चेष्टा (मुकम्मल कोशिश नहीं) चलती ही रहती है। चूँकि अब महंगाई डायन और भ्रष्टाचार राक्षस इस समाजवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है और विपक्षियों के लिए उसका विरोध करना ज्यादा सुविधाजनक है तो उसके लिए भी समाजवाद कोई मुद्दा नहीं। इस नाम से बनी-जुडी पार्टियों तक के लिए इसके माने बदल गए हैं। ऐसे में यदि सरकार एक दिन अकबका कर देश के करोड़ों भूखों-नंगों-शोषितों के लिए द्रवित नजर आने लगे तो समझिये चुनाव बेहद निकट है।
और अब धर्मनिरपेक्षता–यह किसे नहीं पता कि दूसरे धर्म के लोग भी हमारे साथ ही रहते हैं और हम उनके साथ। पर जब लाल किले से प्रधानमंत्री हम नासमझों को सद्भाव का पाठ पढ़ाने लगें, हमें धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता-छद्म-धर्मनिरपेक्षता के अर्थ बताने की फिर से कोशिशें होने लगें,अल्पसंख्यक समुदाय के बाहुल्य से घिरे बहुसंख्यक और इसकी उलट स्थितियों में रह रहे ‘अल्पसंख्यकों’ के चेहरों पर भय मिश्रित चुप्पी और खिसियाहट दिखने लगे, जब साधु-संतों की भीड़ को नेतृत्व देने के लिए नेतागण आगे आने लगें तो समझिए चुनाव आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
प्रजातंत्र की बाबत मैं ऐसा नहीं कह पाता जैसा कि ऊपर कहा। इसकी याद हमें हमेशा दिलाई जाती है। इसे किसी षड़यंत्र की तरह हमपर थोपा जाता है। सत्तापक्ष अपनी ढिठाई और निरंकुशता को इसकी आड़ में छुपाता है। वरना प्रजातंत्र के इन रक्षकों की नाकामियों से आज़िज आकर जब सर्वोच्च न्यायालय कुछ बोलता है तो इनकी सत्ता खतरे में क्यों पर जाती है? भारतीय राजनीति में प्रजातंत्र ने जितने पाप अपने सिर पर ढोए हैं उतने तो निरंकुश कई तानाशाहों के शासन ने भी नहीं ढोए हों। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र (जनसँख्या के लिहाज से, वर्ना जनसँख्या कौन सा कभी वरदान साबित होता है) में हर वक़्त नेताओं को यह बताना पड़े की यहाँ लोकतंत्र है, मुझे चिंता का विषय लगता है। इसलिए नेताओं द्वारा इनके प्रयोग से आप चुनाव को लेकर कोई आशय न निकालें तो अच्छा लेकिन यदि किसी कद्दावर नेता विशेष को छोटा बताने की प्रवृति में जुटे नेता अचानक उसे अलोकतांत्रिक, निरंकुश प्रवृत्ति वाला बताने लगे तो उसके आशय निकलने की जरूरत है…

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