सकल अनर्थक मूल एक तॊँ
एक अनीतिक खानी
रे सॊना ! रे चानी !
जते महत्ता तॊर बढ़ै अछि
तते विश्व में सॊर बढ़ै अछि
डाकू चॊर मनुज बनि चाहय
पाइ कॊना हम तानी
रे सॊना ! रे चानी !
तॊर पाछु पड़ि मनुज मत्त अछि
विधि-विधान सब किछु असत्त अछि
कॊनॊ पाप कर्म करबा में
नहिं किछु आनाकानी
रे सॊना ! रे चानी !
लक्ष्य जीवनक एक पाइ अछि
मनुज गेल बनि तें कसाई अछि
दया धर्म सुविचार भेल अछि
गलि गलि संप्रति पानी
रे सॊना ! रे चानी !
सॄष्टिक मूल धरातल नारी
यॊग जनिक मुद मंगलकारी
हत्या तनिक करै अछि
निर्मम पाइक लेल जुआनी
रे सॊना ! रे चानी !
देश दिशा दिस कॊनॊ ध्यान नहि
जन-आक्रॊशक लेल कान नहिं
काज तरहितर बनब कॊना हम
लगले राजा-रानी
रे सॊना ! रे चानी !
अर्थक लेल अनर्थ करैये
पदक प्रतिष्ठा व्यर्थ करैये
सत्यक मुंह कय बंद पाइ सँ
करय अपन मनमानी
रे सॊना ! रे चानी !
यश प्रतिपादक कॊनॊ काज नहिँ
अनुचित अर्जन, कॊनॊ लाज नहिँ
अर्थक महिमा तकर मंच पर
कीर्तिकथा सुनि कानी
रे सॊना ! रे चानी !
कवि- बबुआजी झा अज्ञात
Saturday, September 8, 2007
Friday, September 7, 2007
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा
जतय जाँइ¸ जे करँइ¸ अपन छौ
सबल पाँखि उन्मुक्त गगन छौ
सुमधुर भाषा¸ प्रकॄति अहिंसक
अपन प्रदेश¸ अपन सभ जन छौ
मुदा कतहु रहि अर्जित जातिक
मान सुरक्षित रखिहेँ सूगा¸
एतबा धरि तॊं करिहेँ सूगा
उत्तम पद अधिकाधिक अर्थक
जाल पसारल छै कानन में
पिजड़ा बन्न प्रफुल्लित रहमे
राजा की रानिक आङन में
जन्म धरित्रिक मॊह मुदा तोँ
मन में सभ दिन रखिहेँ सूगा¸
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा ।
पराधिन छौ कॊन अपन सक
बजिहेँ सिखि-सिखि नव-नव भाषा
की क्षति¸ अपन कलाकय प्रस्तुत
पबिहेँ प्रमुदित दूध बतासा
मातॄ सुखक वरदान मुदा नहिं
पहिलुक बॊल बिसरिहेँ सूगा¸
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा ।
जननिक नेह स्वभूमिक ममता
रहतौ मॊन अपन यदि वाणी
देशक हैत उजागर आनन
रहत चिरन्तन तॊर पिहानी
मुदा पेट पर भऽर दै अनके
नहिं सभ बढ़ियाँ बुझिहेँ सूगा
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा ।
कवि-बबुआजी झा अज्ञात
जतय जाँइ¸ जे करँइ¸ अपन छौ
सबल पाँखि उन्मुक्त गगन छौ
सुमधुर भाषा¸ प्रकॄति अहिंसक
अपन प्रदेश¸ अपन सभ जन छौ
मुदा कतहु रहि अर्जित जातिक
मान सुरक्षित रखिहेँ सूगा¸
एतबा धरि तॊं करिहेँ सूगा
उत्तम पद अधिकाधिक अर्थक
जाल पसारल छै कानन में
पिजड़ा बन्न प्रफुल्लित रहमे
राजा की रानिक आङन में
जन्म धरित्रिक मॊह मुदा तोँ
मन में सभ दिन रखिहेँ सूगा¸
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा ।
पराधिन छौ कॊन अपन सक
बजिहेँ सिखि-सिखि नव-नव भाषा
की क्षति¸ अपन कलाकय प्रस्तुत
पबिहेँ प्रमुदित दूध बतासा
मातॄ सुखक वरदान मुदा नहिं
पहिलुक बॊल बिसरिहेँ सूगा¸
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा ।
जननिक नेह स्वभूमिक ममता
रहतौ मॊन अपन यदि वाणी
देशक हैत उजागर आनन
रहत चिरन्तन तॊर पिहानी
मुदा पेट पर भऽर दै अनके
नहिं सभ बढ़ियाँ बुझिहेँ सूगा
एतबा धरि तॊँ करिहेँ सूगा ।
कवि-बबुआजी झा अज्ञात
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