एक मुट्ठी अबीर
हाथ मे लऽ
एकटा निरर्थक आवाज निकालैत
हम हवा कें लाल कऽ दैत छिएय
अबीर उड़ै छै हवा मे
क्षण भरि
हवा हॊइत छै लाल
हम देखैत छिएय
हम देखैत छिएय
आ प्रयास करैत छिएय
ओहि जिनगी के लाल करबाक
जे जिनगी मुट्ठी मे
नहि अबैत छै
आ जतऽ इ नेनपनि हॊइत छै
ओत्तहि हॊइत छै
हमर प्रेम
आ जतऽ हॊइत छै
हमर प्रेम
ओत्तहि हमर मूर्खता मे
एकटा सतरंगी परदा हॊइत छै
किछु स्मृति, किछु फूल, किछु कांट
आ ओहि सब संऽ
अपन अंग-वस्त्र बचबैत
अबैत
अहां हॊइत छिएय
पुनः
लहलहाइत खेतक मध्य
हमर स्मृति मे
कलकल बहैत एकटा धार
हॊइत छैक
एम्हर बहुत दिन संऽ
ओतऽ मृत्यु बसैत छैक
ई कतेक नीक छै
जे जतऽ नहि हॊइत छी अहां
ओतऽ भॊरक कुहेस जकां
खसैत छै ठरल मृत्यु
आस्ते-आस्ते
लॊक कें ई बूझक चाही
बूझल रहक चाही
जे एक बेर - दू बेर
हम खूब जॊर संऽ चिचिआयब
अबस्से
जे जा धरि सतरंगी परदाक पाछू संऽ
हमर मूर्खता मे
अहां अबैत रहब
हॊइत रहत अहिना
अगनित जन्म धरि
जे अहां रहब, हम रहब
लहलहाइत खेत सबहिक बीच संऽ
बहैत एकटा धार रहत
समयिक वज्रपात रहत
आ हम चिचिआयब
कि जाधरि
सतरंगी परदाक पाछू सऽ
अहां अबैत रहब
स्वप्ने मे बरू
एना हॊइत रहतै
विवेकानंद झा
१७ जनवरी ९७
हार्दिक अभिनंदन
अपनेक एहि सिंगरहार मे हार्दिक अभिनंदन अछि
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Friday, October 24, 2008
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