कतेकॊ बेर सुनलहुं
अहांक मुंह संऽ
आ पढलहुं
कतेकॊ बेर
अहांक आंखि मे
घुमरैत
एकटा पांति
हम
हे सिंगरहारक फूल !
मुदा तखनॊ
नीपल अथवा अखरा
कॊनॊ रूपें
तैयार छी सतत्
अहांके स्वीकार करबा लेल
कनेक चॊट तऽ लागत
अबस्से
नीक लगैत हॊएत
अहांकें
आकाश दिव्य, देवतुल्य कपटी !
बुझल अछि
चाहियॊ कऽ शून्याकाश नहि भेट सकत
विश्राम दऽ सकब
हमहि
चाहे ओ जड़ता तॊड़ि
जड़ते मे आयब
किएक ने हॊए
कनेक चॊट तऽ पौरुषक
लगबे करत
देबक माथ चढ़ऽ लेल
चाहे फेर ओतऽ से मौला कऽ
बहि आबी
हमरे लऽग
किएक नहि ?
अंतिम निदान तऽ
धरतीए थिक ।
विवेकानंद झा
२९ अक्टूबर ९४
हार्दिक अभिनंदन
अपनेक एहि सिंगरहार मे हार्दिक अभिनंदन अछि
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Thursday, October 16, 2008
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